दिन की धूप से टूटा शरीर
अब नींद में डूब रहा है
कहीं एक जुगनू जल उठा है
उड़ते-उड़ते,
कलाबाज़ीयाँ करते-करते
एक सपने में कहीं खो रहा है
काटे गये सारे पलों का
पल पल हिसाब हो रहा है
देखे गये चहरों क नकाब उड़ रहा है
जुगनू के पीछे मैं
जंगल में जा रहा हूँ
चलते-चलते दूर
मेरा मकान हो रहा है
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