मुंबई में एक बहुत बड़ा समुद्र है
उस समुद्र के तल में
कितनी ही सारी नांवें हैं
अनेकों घरों से उठते हुए बुलबुले,
लाखों बच्चे और जवान,
मछली वाले गुब्बारे लिए
यहाँ से वहाँ बसेरा करते हैं.
बूढ़े और अधेड़ उम्र वाले लोग,
माँयें, दादा-दादी, नाना-नानियाँ
जो कुछ ठहरे हुए हैं अपनी जगह
या चिपके हुए हैं, काई की तरह किसी पत्थर से
उन्होंने पकड़ी हुई है डोर
इन लाखों बच्चों और जवान गुब्बारों की
जो लटके हुए, जा रहे हैं
एक शहर से दुसरे शहर,
एक तालाब या नदी से
एक नए समुद्र की तरफ
भोपाल में एक तालाब है
उस तालाब का तल बहुत बड़ा है.
पर मुंबई की तरह वहाँ
कोई नांवें नहीं
न घर हैं तल से चिपके हुए.
गलती हुई कोई लोहे की खिड़की नहीं
जहाँ से सिर्फ एक लकीर दिखती हो.
वहाँ की खिड़की से दूसरी खिड़की दिखती है
उस खिड़की के अन्दर एक दरवाज़ा है,
दरवाजे के उस पार मैं घंटियाँ बजा रहा हूँ
और माँ...
कॉलेज की खिड़की से बहर
एक लकीर पर नज़रें गड़ाये बैठी है
घंटी बजी और मैं माँ से मिला
खाना खाते हुए बताता रहा माँ को
मुंबई के समुद्र की कहानी
- वहाँ चाल का एक ढंग है
बातों का एक लिहाज़
लिहाज़ से भरे कितने सरे लिफाफे,
मैं अपने साथ लेता घूमता रहा, बाँटता रहा,
क्या-क्या सीखता रहा.
मुंबई में हर कोई मिल जाता है
और भोपाल में हर रोज़ वही मिलता रहता है
एक बड़े से समुद्र के तल का
वो छोटा सा कोना है मुंबई...
जहाँ रौशनी नहीं पहुँचती
वहाँ अपनी लालटेन
खुद लिए चलना पड़ता है,
हर कहीं बसेरा करना पड़ता है,
बुलबुलों से हवा खीचनी पड़ती है,
बचना है तो बुलबुलों में रहना पड़ता है.
कभी भोपाल की याद आई तो
तो मुंबई से लकीर को देखता हूँ
और सारे लोग, घर, नांवें, दोस्त-दुश्मन,
चुपचाप,
मेरे ढंग और लिहाज़ वाले कपड़ों से
रिस्ते-रिस्ते समुद्र के तल में वापस चले जाते हैं
जंक खाया सरिया गायब हो जाता है
और खली खिड़की बची रह जाती है
खिड़की से दिखती है एक लकीर
और लकीर पर चलता-चलता मैं...
भोपाल जा रहा हूँ.
- at prithvi cafe, after a long walk on juhu beach on a windy evening.
2 comments:
Go home buddy!
Seriously, very nice and brutally honest. We'll need to catch up and match up with your thought bubbles to breath in some of that air you speak of.
Very nice, and yeh i will second that, go home (or i have a better idea, come down to ahmedabad)haha enjoy!
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