कविता कि चौक पर चिड़ीया अाए
आदि से अंत सौ चक्कर लगाये
डाली तिन्का चौंच में दबार
भागती बीड़ से बच-बचाकर
गिरती धूप सी,
उठती डूल कि तरह
उड़ती-उड़ती जाये
शाम से पहले बस चौक तक पुँच जाए
चौक के उपर घौंसला झूल रहा है
कोई कहीं गिद्ध तो नहीं उड़ रहा है?
बिजली के खंबे
साबुत खड़े हैं, ऊँचे
अंतकाल तक आकाश में लकीरें खींचे
कि इस कविता कि तरह
फिर कब कोई चिड़ीया
उड़ती-उड़ती आए
अौर पंक्तीयों में फंसर
अपना घौंसला बनाये
1 comment:
beautiful imagery.......... amazingly poetic.....wonderful.......shabd nahi aa rahe.....wow!!!
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