Thursday, October 21, 2010

चौक


कविता कि चौक पर चिड़ीया अाए
आदि से अंत सौ चक्कर लगाये
डाली तिन्का चौंच में दबार
भागती बीड़ से बच-बचाकर
गिरती धूप सी,
उठती डूल कि तरह
उड़ती-उड़ती जाये
शाम से पहले बस चौक तक पुँच जाए

चौक के उपर घौंसला झूल रहा है
कोई कहीं गिद्ध तो नहीं उड़ रहा है?
बिजली के खंबे
साबुत खड़े हैं, ऊँचे
अंतकाल तक आकाश में लकीरें खींचे
कि इस कविता कि तरह
फिर कब कोई चिड़ीया 
उड़ती-उड़ती आए
अौर पंक्तीयों में फंसर
अपना घौंसला बनाये

1 comment:

parul said...

beautiful imagery.......... amazingly poetic.....wonderful.......shabd nahi aa rahe.....wow!!!